Monday, November 21, 2011

मिनिबस - सीट कम, सवारी ज्यादा - Journey in a Smalltown in a Minibus

मिनिबस खड़ी थी सड़क के बीचों बीच, सवारियों के इन्तेजार में | ये मिनिबस का भी एक जूनियर वर्ज़न था, ट्रेडिशनल पीला रंग, गाडी के पीछे "हनी-बनी-ते-मनी दी मोटर" लिखा हुआ था काले रंग में, और बस के आगे लिखा था "दिलजले" | बस का रूट देखा तो बस वहीँ जा रही थी जहाँ मुझे जाना था, नवोदय स्कूल | किस्मत से मेरी डेस्टिनेशन आखिरी डेस्टिनेशन थी नहीं तो बस ऐसे ऐसे रह्समायी गाँवों और रास्तों से होके जाती है की आदमी गुम हो जाए पर मंजिल तक न पहुंचे | हमीरपुर डिस्ट्रिक्ट की ख़ास बात ये है की यहाँ सड़कों का मायाजाल है, सबसे ज्यादा घनत्व है यहाँ सड़कों का पूरे राज्य में [रोड डेन्सिटी] और ऊपर से मुख मंत्री का गृह नगर | किसी भी रोड पे गाडी दाल दो, अवाहदेवी या भोरंज निकल जाती है वो सड़क और हर एक गाँव के लिए सड़क है |

अपनी मोटर-साईकिल से उतरते ही मैं बस में घुस गया और मुझे खिड़की वाली सीट मिल गयी , जो की अक्सर होता नहीं है | गाँवों की बसों में खिड़की वाली सीट मिलना बड़ी मेहनत-मशक्कत का काम है | अख़बार, झोले, सब्जी के लिफाफे रखके लोग अपनी सीट मार्क कर लेते हैं, आप खाली समझ के बैठ जाओगे और बस चलने से पहले ही सीट का मालिक आ धमकेगा |

गाँव की बसों में ट्रेडिशनल सी-ऑफ  करने के तरीके नहीं चलते कि जब तक बस नहीं जाती खड़े रहो और बस छूटने पे टाटा-बाय करो, ये बसें जन्म-जन्मों तक खड़ी रह सकती हैं, सवारियों के इन्तेजार में, हीर-राँझा का प्यार कम पड़ जाता है कई बार, नहीं चलेंगी तो नहीं चलेंगी, इसलिए मेरा दोस्त मुझे छोड़ के निकल लिया | बस के कंडक्टर मेनेजमेंट गुरुओं को भी पानी पिला देने वाले पैंतरे  इस्तेमाल करते हैं सवारियां "ढ़ोने" के लिए इस करके बसें लाश कि तरह खड़ी रहती हैं |

खैर बस अगले ४५ मिनट तक वहीँ खड़ी रही, निर्जीव और स्थिर| फिर थोड़ी देर बाद बस का कंडक्टर आया , थोड़ी देर मतलब ४५ मिनट बाद , पर बस का कंडक्टर और अस्सिटेंट  कंडक्टर अभी तक सीन में नहीं थे | गाँव की बसों में अस्सिस्टेंट कंडक्टर  होते हैं , आलमोस्ट  सब बसों में क्यूंकि अक्सर बसों में भीड़  बेतहाशा हो जाती है और एक कंडक्टर सब सवारियों को मैनेज नहीं कर पता है , तो सवारियों में से ही कोई स्कूल या कालेज जाने वाला नौजवान , असिस्टेंट कंडक्टर का रोल प्ले करता है | इसके निम्नलिखित  फायदे हैं:

अ) लड़की पटाने में सुविधा होती है, लड़की को रोज सीट दिलवा दो तो लड़की पटने  के चांसेज बढ़ जाते हैं
ब) कंडक्टर से दोस्ती हो जाती है, कंडक्टर गाँवों/छोटे शहरों में बहुत काम की चीज़ होती है
स) किराया नहीं लगता

फिर पूरे एक घंटे खड़े रहने के बाद और "अगम कुमार निगम"   के दर्द भरे गीत सुनने के बाद बस में जान आई, सवारियों को ज्यादा फरक नहीं पड़ा, पर मेरी रुकी हुई धड़कन एक बार फिर चल पड़ी, बस थोड़ी देर और रुकी रहती तो मैं १२ किलोमीटर कि यात्रा पैदल ही तय कर लेता | कंडक्टर ने १०-२० लोगों को छत का रुख करने को कहा और खुद गुटका चबाता हुआ [राह चलते] लोगों से गप्पें मारता हुआ बस को चलने का आदेश दिया | रविवार के दिन बसें कम होती हैं, और सवारियां इकठी हो हो के अथाह हो आती हैं, तो बस के अन्दर पूरा कुम्भ का मेला लगा हुआ था, और मेरे बगल में बैठी हुई आंटी मजे से मूंगफली खा रही थी और छिलके बस में ही फेंक रही थी , एकदम आराम से, भीड़ भड़क्के से कोई फरक नहीं पड़ा उसको| मूंगफली मुहं में और छिलका बस के अन्दर, एकदम अचूक निशाना |


खैर बस चली, धीरे धीरे, मेरी परेशानी का लेवल बढ़ता चला गया और सवारियां उतरती चढ़ती चली गयीं, पांच उतरती थी, दस चढ़ती थी, भीड़ ख़तम होने का नाम नहीं लेती थी| पूरी बस में मुझे छोड़ के कोई भी विचलित नहीं था बस की देरी को लेकर के, उनके लिए रोज का काम था, उनके लिए इन्तेजार करना ही जीवन है और मेरे लिए तेज़ भागना, जल्दी जल्दी, सब कुछ जल्दी चाहिए, बस एकदम से| वहां जिंदगी बहुत धीमे से चलती है गाँव में| धीरे धीरे गाँव बदल रहे हैं, जमीन है पर खेती नहीं है क्यूकी अब खेती नहीं कोई करना चाहता, कुछ आई.आई.एम् और आई.आई.टी वाले कहते हैं कि खेती करेंगे पढ़ लिख के पर  बाकी सबको शेहेर जाना है| मेरा एक दोस्त है आई.आई.एम् लखनऊ का , कहता है गाय पालेगा, खेती करेगा, भाई अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, खेती नहीं करेगा तो शेहेर वाले तो कहीं के नहीं रहेंगे, अब पहाड़ों में हरियाली न रही तो काहे के पहाड़? पूरे डेढ़ घंटा गाँव गाँव में घूमने के बाद मैंने पांच किलोमीटर का सफ़र तय किया, अब मैं भी एक गाँव वाला हो चुका था, कोई जल्दी नहीं, कम से कम एक बस तो है , पैदल चलने से तो वही अच्छा है, यही  संतुष्टि का भाव लिए उतर गया मैं |

 मैं भी एक गाँव में ही रहता हूँ सुंदरनगर में , आप भी एक गाँव से ही आये हैं, आज दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव में हैं, पर घर आपका भी गाँव में ही है, एक छोटा सा गाँव, जहाँ आज भी वही मिनी बस चलती है, कम सीटें और ज्यादा सवारी के साथ| वहां बसों का इन्तेजार  करना एक जरुरत है , आएगी तो आएगी नहीं तो पैदल चलो| मंडी, काँगड़ा, हमीरपुर, सोलन, कुल्लू, शिमला, सब जगह यही मिनिबस चलती है, वही पीला रंग, वही शेर-ओ-शायरी , वही दिलजले ड्राइवर, और वही घिसे-पिटे से रूट |

पर कभी घर आओ "एक हफ्ते" कि छुट्टी पे तो बैठना इस मिनिबस में, मजा आएगा |

Wednesday, November 16, 2011

आशापुरी की गर्भ-गुफा और रहस्यमयी नगरियाँ - (डाडासीबा,चढ़ियार, और हारसिपत्तन) - Ashapuri Temple and Mysterious Dadasiba

बचपन में ध्रुव, डोगा, और नागराज की कॉमिक्स पढ़ा करता था [आज भी पढता हूँ], और मेरी हरकतें भी उनकी तरह ही हो जाया करतीं थीं [आज भी हैं] , गाड़ियों के नंबर, माईल-स्टोंस, बसों के रूट सब एकदम से याद हो जाया करते थे| बस ऐसे ही तीन रूट मेरे दिलो दिमाग पे छाए रहे, एक था डाडासीबा से शिमला, और दूसरा हारसिपत्तन से दिल्ली | मैं सोचता रहता था की क्या गज़ब नाम है, जगह भी जबरदस्त होगी, बड़ा मन हुआ करता था जाने का क्यूंकि नाम ही ऐसा गजब है, डाडासीबा, ऐसा लगता है जैसे बोम्ब बनाने की फैक्ट्री  हो उधर कोई, पर बचपन में बाउजी के पास स्कूटर हुआ करता था तो स्कूटर पे डाडासीबा तो जाया नहीं गया | अभी हाल ही में मेरा एक दोस्त होके आया डाडासीबा और उसने जिस तरीके से एक्सप्लेन किया, रहा नहीं गया और पहुँच गए डाडासीबा |

डाडासीबा एक छोटा सा गाँव है काँगड़ा डिस्ट्रिक्ट  में, और वहां के बाशिंदे कहते हैं कि पूरी दुनिया डेवेलप  हो जाएगी, पर डाडासीबा का कुछ नहीं हो सकता, देख के तो यही लगा कि सच ही कहते हैं | डाडासीबा पहुंचना हो तो जवालाजी से निकल जाओ देहरा कि तरफ और वहां से तलवाड़ा रोड पे निकल लो, किसी भी माईल स्टोन पे डाडासीबा नहीं लिखा होगा, पर घबराने कि जरुरत नहीं है सीधी सड़क है, चलते जाओ, डाडासीबा जब आएगा तो पता चल जाएगा | जब ये बता पाना मुश्किल हो जाए कि  सड़क में खड्ड आ गयी   या खड्ड में सड़क बना दी गयी है , तो समझ लो कि डाडासीबा आ गया | पर कुछ अच्छा पाना हो तो कष्ट भोगने ही पड़ते हैं, तो जैसे ही डाडासीबा पहुँचो आपको दिखता है महाराजा रणजीत सागर डैम, जिसके ऊपर पौंग डैम बना हुआ है | जिन लोगों ने मुंबई देखा हुआ है उनको लगता है कि मुंबई का बीच आ गया और जिन्होंने नहीं देखा हो, उनको लगता है कि मुंबई ऐसा ही होगा|

मल्लाह, किश्ती, और डाडासीबा की एक शाम 

डाडासीबा @ इट्स बेस्ट 

लोनली प्लानेट 

दूर दूर तक देख लो, पानी ही दिखेगा, जमीन नहीं दिखती, आसमान और जमीन में फरक नहीं दिखता| हम जब पहुंचे तो सूरज ढल चुका था, पानी सुनहरे रंग का हो चुका था और दूर पानी में मछली पकड़ने वाला जाल फेंक और खींच रहा था | मेरे ज़हन में सिर्फ एक आवाज़ गूँज रही थी " डा डा सिबा " | जगह का नाम और आँखों के सामने का नजारा बिलकुल राज कॉमिक्स कि कहानियों का कोई गाँव लग रहा था | वहां कैम्पिंग और बोन-फायर करने का बड़ा आनंद आएगा , मछली पकड़ने की कला आती हो तो वहीँ पकड़ो, भूनो और ओल्ड मोंक के साथ खा जाओ|

डाडासीबा से निकले हम एक और बचपन कि याद को ताज़ा करने, आशापुरी मंदिर, वहां से कहते हैं किस्मत वाले दिन सारा  हमीरपुर, बिलासपुर, और रंजित सागर दिखता है, पर अपनी किस्मत हमेशा अगले कल ही आती है सो वैसा ही उस दिन हुआ | दिन दोपहर में पहुँच गए आशापुरी लेकिन आसमान में बादल थे तो कुछ नहीं दिखाई दिया, बस ब्यास नदी दिख रही थी पहाड़ियों को काटती हुई | आशापुरी का मंदिर पहाड़ी कि चोटी पे है और ये मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कि प्रोपर्टी है | सुनिए इस मंदिर कि कुछ विशेषताएं :

कहते हैं ये मंदिर बैजनाथ के प्रसिद्द शिव मंदिर के साथ का बना हुआ है | यहाँ रहने के लिए कोई सराय/धरमशाला नहीं है लेकिन वहां लोगों कि दुकानों में रहा जा सकता है | दूर दूर से लोग आते हैं यहाँ क्यूंकि यहाँ काफी लोगों कि कुलदेवी है, शिमला, नालागढ़, बरोटीवाला, सोलन, ये कुलदेवी सेलेक्ट कैसे होती है ये नहीं पता पर पहुँच  बड़ी है इस मंदिर की|  अन्दर किसी ब्रिटिश महाराजा के दो सिक्के (coins) गड़े हुए हैं, पुजारी परिवार की मानें तो अंग्रेजों ने इस मंदिर में स्वयम्भू पिंडी को तोड़ने के लिए सिपाही भेजे, सिपाहियों ने भरपूर जोर आजमाइश की लेकिन पिंडी नहीं उखड़ी, हाँ पिंडी के नीचे से मधुमखियाँ निकली, जिन्होंने सैनिकों को मार भगाया | फिर तबसे ब्रिटिश लोग भी मंदिर की महिमा को मानने लगे, कितना सच-कितना झूठ इसपे गौर न करें तो स्टोरी काफी इंटरेस्टिंग है | समय के साथ ये मंदिर विखंडित होने लग पड़ा और रही सही कसर पुरातत्व विभाग ने पूरी कर दी, मंदिर की नक्काशी की हुई छत  पे कंक्रीट  चढ़ा दिया गया है और अब ये मंदिर पुराना कम और कम पैसे लेके घटिया ठेकेदार से बनवाया हुआ ज्यादा लगता है |

हिमाचल प्रदेश ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी पेयजल योजना,भडारण क्षमता - १६ लाख लीटर ,जयसिंहपुर 

आशापुरी मंदिर 

नक्काशी की हुई मंदिर की दीवार 

पुरातत्व विभाग का चमत्कार, मंदिर की छत का बेडा गरक कर दिया गया है 

इससे भी जबरदस्त है वैष्णो देवी गुफा जो कि मंदिर से पांच किलोमीटर की दूरी पर है , गुफा में है एक गर्भ द्वार और यकीन मानिये वो गर्भ के द्वार जितना ही छोटा है | पुजारी बाबा उसे गर्भ जून कह रहा था और उस गुफा की ओपनिंग देख के मुझे हल्का सा डर लगा की इसमें फंस गए तो मारे जायेंगे | मुझे याद है २००२ में मेरी माँ भी घुसी  थी इस गुफा में और फंस गयी थी, पर मुझमे और मेरी माँ में  "एक बटा दो" का फरक है तो मुझे लगा की मैं नहीं फंस सकता | गुफा द्वार में घुसने से पुण्य मिलता है ऐसा बाबा का कहना था, मुझे पुण्य मिला या नहीं पर बाय गाड  मजा बड़ा आया | उसी गुफा के ऊपर है कैलाश पर्वत,एकदम नेचुरल  मेड| ऐसा लगता है कैलाश का प्रोटोटाइप रखा  हो प्लास्टर ऑफ़ पेरिस  से बनाके | वो पूरी चट्टान बड़े अजीब तरीके से टिकी हुई  है और मुझे ऐसा लगा की कभी भी गिर जाएगी पर नहीं गिरती तो नहीं गिरती | उस चट्टान के ऊपर सड़क भी बनी हुई है, सोने पे सुहागा |

कैलाश पर्वत, इसने चट्टान को जैसे अपने ऊपर संभाल लिया है 

 गर्भ द्वार के उस पार , इस छेद से उस पार जाने में हवा टाईट हो जाती है 

तबला, डमरू, चिमटा, और कैलाश पर्वत सब अवेलेबल है यहाँ  

 गुफा के अन्दर पुजारी बाबा 

पत्थर के लड्डू, ऐसे लड्डू गुफा के अन्दर टनों के हिसाब से मौजूद हैं 

 खैर वहां से निकले तो दो रास्ते हैं जाने के, एक पालमपुर होके, और एक सुजानपुर-जयसिंहपुर होके , लेकिन हमें तीसरा रास्ता दिख गया था, चढ़ियार - हारसिपत्तन  से जाने का और मजे कि बात ये कि ये वाला रास्ता स्टेट हाइवे - १७ है, जिसका मतलब सड़क पक्की होगी, एक दो गाँव में सड़क पूरी कंक्रीट कि बनी हुई थी, जो कि हिमाचल में  बहुत कम देखने को मिलता है | चढ़ियार  कब आया कब गया कुछ पता नहीं चला, यहाँ से एक बस चलती है चढ़ियार -शिमला और  मुझे लगता था कि कोई क़स्बा होगा रंग बिरंगा सा, पर चलो जाने दो | खाली सडकें , जंगल , ब्यास का बेसिन, और दूर दूर तक फैले हुए गाँव, एक जगह तो ऐसा लगता है कि जैसे स्पीती में पहुँच गए हों|  और फिर आता है  हारसिपत्तन, हारसी गाँव है और पत्तन नदी के तट को कहते हैं, यहाँ पर दो गाँवों के नाम को मिलाके एक नाम दिया गया| हारसी पत्तन में कुछ ख़ास नहीं है बस एक पुल है बहुत बड़ा, जिसके एक तरफ काँगड़ा, एक तरफ मंडी और आजू-बाजू में हमीरपुर  डिस्ट्रिक्ट पड़ता है | वो पुल बड़ा फेमस है प्रदेश में, ठीक  लम्बा चौड़ा पुल है |

वहां पहुँच के मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला, और मेरे दोस्त के हिसाब से वहां कोई प्राचीन मंदिर जरुर होगा क्यूंकि वहां से एक बस चलती है कटड़ा (जम्मू) के लिए, कहने का मतलब ये है कि जिन छोटे छोटे गाँवों से जम्मू-कटड़ा-वैष्णो देवी के लिए बसें चलती हैं, वहां एक सौ प्रतिशत या तो कोई मंदिर होता है, ये रिलीजियस सिग्निफिकेंस होता है, खैर अँधेरा हो चुका था तो मंदिर तो हम नहीं ढूंढ पाए , और कैमरा की बेट्री भी जीरो  हो चुकी थी तो न पुल का फोटो खींच पाए और न ही जगहों का, पर यकीन मानिये जब ब्यास का बेसिन दीखता है और ढलता सूरज पूरे आसमान को सुनहरा बना देता है तो ऐसा लगता है जैसे अलिफ़ लैला की कहानियों का कोई गाँव है|

रोयल इनफिल्ड सनसेट , हारसिपत्तन


ट्रेवल  रूट:
हमीरपुर- जैसिन्ह्पुर-आशापुरी - 75  किलोमीटर, कच्ची और तंग सड़क, 26  किलोमीटर तक स्टेट हाईवे - 39|
वापसी: आशापुरी - चढ़ियार - हारसिपत्तन - संधोल -सुजानपुर-हमीरपुर , स्टेट हाईवे - 17 , अच्छा मगर तंग रोड | 


P.S: तीसरा रूट है घोडिध्वीरी-दिल्ली, जगह का नाम सुनके लगता है मुग़लों की सल्तनत का कोई गाँव हो, जगह का पता चलते ही वहां भी जाया जाएगा | 

Monday, November 7, 2011

जोरू का ग़ुलाम

तुम किचन में क्यूँ खड़े थे? कुछ तो ख्याल करो , मर्द हो, मर्दों को ये सब शोभा नहीं देता |
माँ चाय ही तो बनायीं मैंने, इसमें बुराई क्या है?
तो चाय तुम्हारी बीवी नहीं बना सकती थी?
वो थकी हुई थी माँ , आपको भी पता है ऑफिस में थी वो सुबह से, अकेली कहाँ कहाँ जान देगी वो ?

बेटा मेरी थकान तो कभी नहीं दिखी तुम्हें| मैंने तुम्हें इतने नाज़ों से पाला पर मेरी थकान तो तुम्हें कभी नहीं दिखी|

कमरे में सन्नाटा छा गया | माँ और बेटा एक दूसरे से नजरें नहीं मिला रहे थे |

पड़ोस की बूढ़ी अम्मा बाहर दरवाजे पे खड़ी थी,  यश के चेहरे पे खीझ देख के उसे सारा माजरा समझ आ गया, हाथ पकड़ के वो यश की माँ को अन्दर ले गयी| 

वो बूढ़ी अम्मा उनके घर के बगल में रहती थी, कोई बीस साल से , और वो एक खुशहाल घर को नरक में तबदील होते देख रही थी| जबसे यश की शादी हुई थी , यश की माँ को यश के बर्ताव में कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था| सुबह की चाय यश बनाता था, रात को भी किचन में खड़ा मिलता था | बस इसी सब से यश की माँ को दिक्कत थी, की शादी के पहले तो कभी लड़के से काम नहीं करवाया, अब जब शादी हो गयी तो लड़का एकदम से घरेलू  हो गया है, ये सोच सोच के उसका खून जलता रहता था, रही सही कसर पड़ोस की औरतें पूरी कर दिया करतीं थीं|

उस बूढ़ी अम्मा को काफी पहले ही ये आभास हो गया था की जो अब हो रहा था इस घर में उसे पूरा यकीन था की एक दिन ये जरुर होगा | इस घर में उसने अजीब सा हिसाब देखा था और उसने उम्मीद नहीं की थी की पढ़े लिखे लोगों के घर में ऐसा होता होगा | बच्चे स्कूल से आयेंगे तो लड़का कपड़े दरवाजे पे ही खोल देगे, खाना खाएगा तो माँ जूठी प्लेट तक उठा के किचन में रखेगी | लड़की को पूरा सलीका सिखाया था उन्होंने , खाना बनाना , कपड़े धोना, बर्तन धोना | कोई मेहमान आये घर में तो पानी पिलाने से लेकर खाना बनाने का सारी ड्यूटी लड़की की थी, ऑटोमेटिक मोड में बिना किसीके कुछ भी कहे | लड़का बैठता था भरी महफ़िल में, उसके गुणगान किये जाते थे, पढने में अच्छा था, पढने में तो लड़की भी ठीक थी, पर लड़कियों के टैलेंट को तौलने का पैमाना हमेशा से ही अलग रहा है |

बूढ़ी अम्मा समझाती भी थी की लड़के को भी काम सिखाओ, अब ज़माना बदल गया है, लड़की अगर बाहर का काम करती है तो लड़के को भी घर का काम आना चाहिए, और कम से कम खुद का काम तो आना ही चाहिए | पर अनपढ़ों को अक्सर बेवकूफ भी मान लिया जाता है, तो बूढ़ी अम्मा की बात पे किसी ने गौर नहीं फ़रमाया |

अब अगर किसीको आप बचपन से पानी की जगह दूध ही पिलाओ, या स्पून ब्रेस्ट फीड ही करते जाओ तो आदत तो लग ही जाएगी |अब किसीके कच्छे भी माँ या बेहेन ही  धोये तो उसको काहे की आग लगी है जो अपना काम खुद कर ले, बस वही यश के साथ हुआ, उसको आदत लग गयी, सिर्फ पढने की और अपना काम ना करने की | सिर्फ पढने से ही देश चलता होता तो क्या बात थी |

जब पढ़ी लिखी सुन्दर सुशील बीवी घर में आई तो सबकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा | साथ में सरकारी नौकरी, उससे सोने पे सुहागा हो गया | अब लड़की जब पढ़ी लिखी थी तो  काम तो करेगी ही, बर्तन भांडे धोने के लिए थोड़े ना कोई पढाई करता है | पर यश की माँ ठहरी १९७० का मॉडल, बहू है तो काम वही करेगी | यश ने देखा की बीवी किचन में भी जुटी है, दफ्तर में भी, तो उसने हाथ बांटने की पेशकश की | बीवी का दर्द ज्यादा टाइम देखा भी नहीं जाता | बस वहीँ गड़बड़ हो गयी | यश की माँ को लगा की लड़का  तो हाथ से गया अब | पर वो ये भूल गयी की लड़की अर्धांगिनी बन के आई है, मतलब की आधा हिस्सा, हिस्सा आधा दो और काम पूरा लो ऐसा तो किसी भी देश में नहीं चल सकता |

और उस दिन से यश पे जोरू का ग़ुलाम का लेबेल लग गया |

आस पड़ोस की औरतें और यहाँ तक की स्कूल जाते बच्चे भी यश को ज़ोरु का ग़ुलाम नाम से जानने लगे, बच्चा तो वही सीखेगा ना जो देखेगा, सुनेगा | वरना बच्चे को क्या पता होगा जोरू का और जोरू के ग़ुलाम का |

अनपढ़ और लाचार बूढ़ी अम्मा के लिए ये समझना मुश्किल हो गया था कि अपने ही घर में खाना बनाना, बर्तन धोना, यानी कि अपना काम खुद करना कब से ग़ुलामी हो गया? अपनी ही बीवी के साथ कोई अगर काम को आधा आधा कर ले तो उसे ग़ुलाम कहने वाले तो सही मायने में अनपढ़ ही होंगे| वो सोच रही थी कि गलती किस कि है, यश कि जिसने कभी अपनी माँ का हाथ नहीं बंटाया या यश कि माँ कि जिसने अपने लड़के को काम कि हवा ही नहीं लगने दी, या यश की बीवी की जो सारा काम  खुद नहीं कर सकती |

अम्मा यश के घर से बड़बड़ाती हुई निकली, शुक्र है मैं पढ़ लिख नहीं गयी, नहीं तो मैं भी ............ |

क्या आपके घर में भी हॉउस होल्ड ड्यूटी ऑटोमॅटिकली  आपकी पढ़ी लिखी बेहेन ही देखती है, जैसे कि खाना बनाओ, कपड़े धोना, बर्तन धोना|
 

और सबसे ज्यादा इम्पोर्टेंट सूखे हुए कपड़े छत से लाना ? क्या आपने कभी अपने  धुले हुए कपड़ों को तह लगाया है? या वो भी आपकी बेहेन ही करती है ?   

अगर ऐसा है तो आप में भी ज़ोरु का ग़ुलाम बन्ने का भरपूर  टेलेंट है |