Tuesday, September 9, 2008

नामुमकिन कुछ भी नहीं


अक्सर पूछा करता हूँ मैं खुद से,
क्यूँ ख्वाब सजाना मुश्किल है
क्यूँ मुश्किल है खुद से लड़ना,
क्यूँ तन्हा चलना मुश्किल है.

क्यूँ खडा अकेला हूँ मैं भीड़ में,
क्यूँ मेरा छिपना मुश्किल है,
क्यूँ अपनी ही धड़कन को सुनना,
कुछ कुछ सा नामुमकिन है.

क्यूँ होते हैं रिश्ते -नाते,
जो बांधे फंसें हर दम मुझको.
क्यूँ अपनों को अपना कहना,
बस यह भी तो नामुमकिन है.

क्यूँ आसान है कहना सुनना,
क्यूँ कुछ भी करना मुश्किल है.
क्यूँ आसान है हर पल मरना,
क्यूँ एक पल जीना मुश्किल है.

अक्सर पूछा करता हूँ मैं खुद से,
क्या जीना भी नामुमकिन है.
बस एक आवाज मैं सुनता हूँ,
मुमकिन है, हाँ मुमकिन है।
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